इस बारे में मनुष्य बहुत कम सोचता है।
मान लीजिए यदि कोई इंसान कहे कि मैं बहुत बुद्धिमान हूँ। तो लोग कहेंगें कि वो अहंकारी है। जबकि ऐसा होने की सम्भावना बहुत अधिक बढ़ जाती है कि दूसरे में अहंकार ढूढ़ने वाले खुद अहंकार से भरे हो।
और यह मैं को अहंकार मानना रावण,कंस जैसे अहंकारी लोगों से आया है। क्योंकि उन्होंने हमेशा खुद को ऊंचा और बड़ा दिखाना चाहा। इसी कारण लोगों ने मैं को अहंकार का सूचक मान लिया।
इन सब से अलग एक प्रकार की मैं और होती है जिसे दुनिया के लोग नही जानते। यह एक भक्त की मैं हो सकती है और भगवान की मैं भी हो सकती है। यह कहना गलत ना होगा कि शब्द को पकड़ने से बेहतर है कि भवनाओं को पकड़ा जाए। जिस भाव से इंसान मैं का इस्तेमाल करता है, उसी भाव से उसे भक्त,भगवान, अहंकारी माना जाता है।
भगवान श्री कृष्ण ने गीता में मैं शब्द का इस्तेमाल किया। लेकिन उनको अहंकारी नही कहा गया। उन्हें भगवान माना गया। ठीक इसी कड़ी में अर्जुन ने भी मैं शब्द का इस्तेमाल किया। लेकिन उसे भी अहंकारी नही कहा गया। उसे भक्त कहा गया। अर्जुन के सवाल जवाबों के कारण ही आज हम गीता पढ़ पाते है और अलौकिक ज्ञान प्राप्त कर पाते है।
इस प्रकार एक मैं के तीन रूप मिलते है। अहंकारी मैं, भक्त भाव वाला मैं, और भगवान भाव वाला मैं।
अध्यात्म, अहंकारी वाले मैं से भक्त वाले मैं से होते हुए भगवान वाले मैं तक पहुंच जाना है।
इसीलिए मैं कहने वाले को अहंकारी कहते हैं जो बिना आध्यात्मिक राह पर चले मैं कहता है। उसमें अहमभाव यानी अहंकार का भाव होता है। इंसान का अज्ञान ही उसका अहंकार है। वो खुद को शरीर समझता है,जिसमें जाट-पात,ऊंच-नीच के बंधन आ जाते है। इसीलिए इंसान अहंकार में रहता है।
दूसरी ओर इंसान शरीर से उर उठ कर अपनी असल पहचान पा लेता है। इसी कारण वह भगवान भाव से मैं कहता है। इस राह के बीच मुक्ति की चाह रखने और सीखने की भावना रखना भक्त भाव वाले मै को जन्म देती है।
अहंकार भाव के मैं को छोड़कर अपने असल रूप को जानना मैं यानी बह्म भाव वाला मैं कहलाता है। जिसे भगवान भाव वाला मैं कहलाता है।
उस अवस्था पर इंसान यह कहता है अहम ब्रह्मास्मि। अथार्थ मैं ही ब्रह्म हूँ।
यही है मै से मै तक का सफर। भ्रम से ब्रह्म तक का सफर।
-योगेन्द्र सिंह
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